पी0 डी० १५०

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पी0 डी० १५०

इसे क्या कहा जाय....अच्छी याद या की कुछ और जो भी है इस वाकये ने मेरे जीवन औए मेरी विचार धारा पर गंभीरप्रभाव छोड़ा..... बात उन दिनों की है जब हम - मस्त कलंदरों का एक नुक्कड़ नाटक ग्रुप हुआ करता थाहमलोग सामाजिक बुराइयों के खिलाफ गली मुहल्लों में नाटक किया करते थेइस तरह हमारी दीवानगी देश के कईहिस्सों में अपनी आवाज को लोगों तक पहुचानें के लिए गूंज चुकी थी....इसी क्रम में हमें एक बार मुंबई जाने कामौका मिला..... वक्त था वर्ल्ड सोशल फोरम का विरोधी विचार धारा के कुछ बनावटी और कुछ दिलों पर जख्म लिए हक़ के लिए लड़ने वालों का जमघट.... हम लोग भी वहां एक किसान संगठन के साथ नाटक करने पहुच गए .... आकाश में गूंजते नारे मुठ्ठी बंद हाथों में बहता जोश बस यही कह रह था.... आवाज दो हम एक है.....हमारे पीछेसांवले चेहरे का एक अधेड़ व्यक्ति हाथ में सिगरेट पकड़े हुए चल रहा था.... जो हमें पीछे से नारों को और बुलंद करनेके लिए उकसाया करता था... मुझे लगा की इस व्यक्ति ने अपनी सारी जिंदगी किसानों की हक़ की लड़ाई लड़ी इसेकिसानों का मसीहा कहना ग़लत नही होगा... उस वक्त मेरे दिल में उसके लिए आदर और सम्मान का समन्दरहिलोरें मार रहा था...... अभी हमारा काफिला कुछ दूर ही बढ़ा होगा की सैकड़ों मीडियाकर्मी हाथो में कैमरा पकड़ेहमरे काफिले को कैद करने पहुचें...... इसी बीच किसी ने मेरी बांह पकड़ी और काफिले से बहार धक्का दे दिया... अब वो ख़ुद ही बढ़ - चढ़ कर नारे लगा रहा था.... जोश से अपना खादी का कुर्ता फाड़ने को उतारू हो रहाथा....मिडिया की चकाचौंध ने उसे वाकई किसानों का मसीहा बना दिया था..... लेकिन काफिले के किनारे खड़ा मईकभी कैमरे की फोकस तो कभी उस मसीहा के नजरों को देख रहा था..... पर हकीकत नगें पैर कंधे पर काला झोलाडाले इस सबसे बेखबर माया नगरी का मज़ा ले रही थी .....
हरी..वीर ...

किस्सा मिटटी का

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किस्सा मिट्टी का
एक बार की बात है मै अपने दोस्तों के साथ नाटक करने के लिए यू पी के एक छोटे से गाँव जा रहा था ये इलाका पहाडियों से घिरा था इन पहाडियों के बीच में छोटे छोटे तालाब थे जो हम लोगो को अपनी और खीच रहे थे हम बहुत उत्साहित थे बहुत खुश भी थे एक दूसरे को परेशान कर रहे थे, पहाड़ की ऊँची- नीची सडको पर दौड़ रहे थे, मजे की बात तो यह है की हम सभी सुबह होने के कारन अभी तक फ्रेस भी नही हुए थे तभी हमरे एक दोस्त ने कहा कि एक सुनसान पहाड़ी के पास जो तालाब है वंहा पर हम सभी फ्रेस हो सकते है हम संभी ने हामी भर दी इसी बीच एक दोस्त ने बोला कि यंहा गाँव के लोग तालाब के पानी का इस्तेमाल पीने के लिए करते है इस लिए हम सभी को गाँव से दूर किसी तालाब के किनारे चलना चाहिए हम सभी ने उनकी बात मान ली और पहाड़ी के दूसरी तरफ़ स्थित तालाब के किनारे पहुँच गए सभी दोस्तों ने अपने-अपने हिसाब से फ्रेस होने कि जगह तलाश ली कुछ झाडियों के पीछे चले गए तो कुछ खुले में ही बैठ गए मै और मेरा एक मित्र तालाब के दूसरी तरफ़ चले गए अभी हम लोग फ्रेस हो ही रहे थे कि एक बुजुर्ग आदिवासी महिला पहाड़ी से नीचे उतर कर आई जिसके एक हाथ में कुल्हाडी थी और वो हम लोगों को देखकर जोर-जोर से गलियां देने लगी हम लोग शर्म के मारे पानी के नजदीक नही जा पा रहे थे काफी देर तक जब वो महिला वंहा से नही हटी तो हम सभी ने अपनी-अपनी पैंट पकड़ी और वंहा से भाग निकले एक दोस्त तो इतना डर गया कि उसने पानी कि जगह मिट्टी का इस्तेमाल कर लियामैंने देखा कि हम सातों दोस्त पहाड़ी के ऊँचे-नीचे रास्तों पर पैंट पकड़े दौड़ रहे थे। मुझे आज भी जब ये पल यादआता है तो इस दौड़ते -भागते जिंदगी में सुकून के कुछ पल का एहसास हो जाता है..जो अच्छा लगता है....
हरी... वीर...